लेखनी कविता -रात आधी से ज्यादा गई थी सारा आलम सोता था - फ़िराक़ गोरखपुरी
रात आधी से ज्यादा गई थी सारा आलम सोता था / फ़िराक़ गोरखपुरी
रात आधी से ज्यादा गई थी, सारा आलम सोता था
नाम तेरा ले ले कर कोई दर्द का मारा रोता था
चारागरों, ये तस्कीं कैसी, मैं भी हूं इस दुनिया में
उनको ऐसा दर्द कब उठा, जिनको बचाना होता था
कुछ का कुछ कह जाता था मैं फ़ुरकत की बेताबी में
सुनने वाले हंस पडते थे होश मुझे तब आता था
तारे अक्सर डूब चले थे, रात को रोने वालों को
आने लगी थी नींद सी कुछ, दुनिया में सवेरा होता था
तर्के-मोहब्बत करने वालों, कौन ऐसा जग जीत लिया
इश्क के पहले के दिन सोचो, कौन बडा सुख होता था
उसके आंसू किसने देखे, उसकी आंहे किसने सुनी
चमन चमन था हुस्न भी लेकिन दरिया दरिया रोता था
पिछला पहर था हिज़्र की शब का, जागता रब, सोता इन्सान
तारों कि छांव में कोई ’फ़िराक’ सा मोती पिरोता था
चारागर=हकीम, तस्कीन=तसल्ली, फ़ुरकत=जुदाई
तर्के-मोहब्बत=मोहब्बत का खात्मा